बुद्ध का वास्तविक नाम सिद्धार्थ था। उनका जन्म कपिलवस्तु (शाक्य महाजनपद की राजधानी) के पास लुंबिनी (वर्तमान में दक्षिण मध्य नेपाल) में हुआ था। इसी स्थान पर, तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक ने बुद्ध की स्मृति में एक स्तम्भ बनाया था।
सिद्धार्थ के पिता शाक्यों के राजा शुद्धोदन थे। परंपरागत कथा के अनुसार, सिद्धार्थ की माता महामाया उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गयी थी। कहा जाता है कि उनका नाम रखने के लिये 8 ऋषियो को आमन्त्रित किया गया था, सभी ने 2 सम्भावनायें बताई थी, (1) वे एक महान राजा बनेंगे (2) वे एक साधु या परिव्राजक बनेंगे। इस भविष्य वाणी को सुनकर राजा शुद्धोदन ने अपनी योग्यता की हद तक सिद्धार्थ को साधु न बनने देने की बहुत कोशिशें की। शाक्यों का अपना एक संघ था। बीस वर्ष की आयु होने पर हर शाक्य तरुण को शाक्यसंघ में दीक्षित होकर संघ का सदस्य बनना होता था। सिद्धार्थ गौतम जब बीस वर्ष के हुये तो उन्होंने भी शाक्यसंघ की सदस्यता ग्रहण की और शाक्यसंघ के नियमानुसार सिद्धार्थ को शाक्यसंघ का सदस्य बने हुये आठ वर्ष व्यतीत हो चुके थे। वे संघ के अत्यन्त समर्पित और पक्के सदस्य थे। संघ के मामलों में वे बहुत रूचि रखते थे। संघ के सदस्य के रूप में उनका आचरण एक उदाहरण था और उन्होंने स्वयं को सबका प्रिय बना लिया था। संघ की सदस्यता के आठवें वर्ष में एक ऐसी घटना घटी जो शुद्धोदन के परिवार के लिये दुखद बन गयी और सिद्धार्थ के जीवन में संकटपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी। शाक्यों के राज्य की सीमा से सटा हुआ कोलियों का राज्य था। रोहणी नदी दोनों राज्यों की विभाजक रेखा थी। शाक्य और कोलिय दोनों ही रोहिणी नदी के पानी से अपने-अपने खेत सींचते थे। हर फसल पर उनका आपस में विवाद होता था कि कौन रोहिणी के जल का पहले और कितना उपयोग करेगा। ये विवाद कभी-कभी झगड़े और लड़ाइयों में बदल जाते थे। जब सिद्धार्थ २८ वर्ष के थे, रोहणी के पानी को लेकर शाक्य और कोलियों के नौकरों में झगड़ा हुआ जिसमें दोनों ओर के लोग घायल हुये। झगड़े का पता चलने पर शाक्यों और कोलियों ने सोचा कि क्यों न इस विवाद को युद्ध द्वारा हमेशा के लिये हल कर लिया जाये। शाक्यों के सेनापति ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के प्रश्न पर विचार करने के लिये शाक्यसंघ का एक अधिवेशन बुलाया और संघ के समक्ष युद्ध का प्रस्ताव रखा। सिद्धार्थ गौतम ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और कहा युद्ध किसी प्रश्न का समाधान नहीं होता, युद्ध से किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी, इससे एक दूसरे युद्ध का बीजारोपण होगा। सिद्धार्थ ने कहा मेरा प्रस्ताव है कि हम अपने में से दो आदमी चुनें और कोलियों से भी दो आदमी चुनने को कहें। फिर ये चारों मिलकर एक पांचवा आदमी चुनें। ये पांचों आदमी मिलकर झगड़े का समाधान करें। सिद्धार्थ का प्रस्ताव बहुमत से अमान्य हो गया साथ ही शाक्य सेनापति का युद्ध का प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया। शाक्यसंघ और शाक्य सेनापति से विवाद न सुलझने पर अन्ततः सिद्धार्थ के पास तीन विकल्प आये। तीन विकल्पों में से उन्हें एक विकल्प चुनना था (1) सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेना, (2) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिए राजी होना, (3) फाँसी पर लटकना या देश निकाला स्वीकार करना। उन्होंने तीसरा विकल्प चुना और परिव्राजक बनकर देश छोड़ने के लिए राज़ी हो गए।परिव्राजक बनकर सर्वप्रथम सिद्धार्थ ने पाँच ब्राह्मणों के साथ अपने प्रश्नों के उत्तर ढूंढने शुरू किये। वे उचित ध्यान हासिल कर पाए, परंतु उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले। फ़िर उन्होने तपस्या करने की कोशिश की। वे इस कार्य में भी वे अपने गुरुओं से भी ज़्यादा, निपुण निकले, परंतु उन्हे अपने प्रश्नों के उत्तर फ़िर भी नहीं मिले। फ़िर उन्होने कुछ साथी इकठ्ठे किये और चल दिये अधिक कठोर तपस्या करने। ऐसे करते करते छः वर्ष बाद, बिना अपने प्रश्नों के उत्तर पाएं, भूख के कारण मृत्यु के करीब से गुज़रे, वे फ़िर कुछ और करने के बारे में सोचने लगे। इस समय, उन्हें अपने बचपन का एक पल याद आया, जब उनके पिता खेत तैयार करना शुरू कर रहे थे। उस समय वे एक आनंद भरे ध्यान में पड़ गये थे और उन्हे ऐसा महसूस हुआ था कि समय स्थिर हो गया है
कठोर तपस्या छोड़कर उन्होने अष्टांगिक मार्ग ढूंढ निकाला, जो बीच का मार्ग भी कहलाता जाता है क्योंकि यह मार्ग दोनो तपस्या और असंयम की पराकाष्ठाओं के बीच में है। अपने बदन में कुछ शक्ति डालने के लिये, उन्होने एक बकरी-वाले से कुछ दूध ले लिया। वे एक पीपल के पेड़ (जो अब बोधि पेड़ कहलाता है) के नीचे बैठ गये प्रतिज्ञा करके कि वे सत्य जाने बिना उठेंगे नहीं। ३५ की उम्र पर, उन्होने बोधि पाई और वे बुद्ध बन गये। उनका पहिला धर्मोपदेश वाराणसी के पास सारनाथ मे था।
अपने बाकी के ४५ वर्ष के लिये, गौतम बुद्ध ने गंगा नदी के आस-पास अपना धर्मोपदेश दिया, धनवान और कंगाल लोगों दोनो को। उन्होने दो सन्यासियों के संघ की भी स्थापना जिन्होने बुद्ध के धर्मोपदेश को फ़ैलाना जारी रखा।
बुद्ध के समकालीन
- बुद्ध के प्रमुख गुरु थे- गुरु विश्वामित्र, अलारा, कलम, उद्दाका रामापुत्त ,सूरज आजाद आदि
- प्रमुख शिष्य थे- आनंद, अनिरुद्ध, महाकश्यप, रानी खेमा (महिला), महाप्रजापति (महिला), भद्रिका, भृगु, किम्बाल, देवदत्त, उपाली आदि।
- प्रमुख प्रचारक- अंगुलिमाल, मिलिंद (यूनानी सम्राट), सम्राट अशोक, ह्वेन त्सांग, फा श्येन, ई जिंग, हे चो, बोधिसत्व आदि।
- गुरु विश्वामित्र: सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद् तो पढ़े ही, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हांकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता था।
- गुरु अलारा कलम और उद्दाका रामापुत्त: ज्ञान की तलाश में सिद्धार्थ घूमते-घूमते अलारा कलम और उद्दाका रामापुत्त के पास पहुंचे। उनसे उन्होंने योग-साधना सीखी। कई माह तक योग करने के बाद भी जब ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई तो उन्होंने उरुवेला पहुंच कर वहां घोर तपस्या की। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई। तब एक दिन कुछ स्त्रियां किसी नगर से लौटती हुई वहां से निकलीं, जहां सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएं।’ बात सिद्धार्थ को जंच गई। वह मान गए कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है। बस फिर क्या था कुछ ही समय बाद ज्ञान प्राप्त हो गया।
- आनंद:- यह बुद्ध और देवदत्त के भाई थे और बुद्ध के दस सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में से एक हैं। यह लगातार बीस वर्षों तक बुद्ध की संगत में रहे। इन्हें गुरु का सर्वप्रिय शिष्य माना जाता था। आनंद को बुद्ध के निर्वाण के पश्चात प्रबोधन प्राप्त हुआ। वह अपनी स्मरण शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे।
- महाकश्यप: महाकश्यप मगध के ब्राह्मण थे, जो तथागत के नजदीकी शिष्य बन गए थे। इन्होंने प्रथम बौद्ध अधिवेशन की अध्यक्षता की थी।
- रानी खेमा: रानी खेमा सिद्ध धर्मसंघिनी थीं। यह बीमबिसारा की रानी थीं और अति सुंदर थीं। आगे चलकर खेमा बौद्ध धर्म की अच्छी शिक्षिका बनीं।
- महाप्रजापति: महाप्रजापति बुद्ध की माता महामाया की बहन थीं। इन दोनों ने राजा शुद्धोदन से शादी की थी। गौतम बुद्ध के जन्म के सात दिन पश्चात महामाया की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात महाप्रजापति ने उनका अपने पुत्र जैसे पालन-पोषण किया। राजा शुद्धोदन की मृत्यु के बाद बौद्ध मठ में पहली महिला सदस्य के रूप में महाप्रजापिता को स्थान मिला था।
- मिलिंद:- मिलिंदा यूनानी राजा थे। ईसा की दूसरी सदी में इनका अफगानिस्तान और उत्तरी भारत पर राज था। बौद्ध भिक्षु नागसेना ने इन्हें बौद्ध धर्म की दीक्षा दी और इन्होंने बौद्ध धर्म को अपना लिया था।
- सम्राट अशोक:- सम्राट अशोक बौद्ध धर्म के अनुयायी और अखंड भारत के सम्राट थे। इन्होंने ईसा पूर्व 207 ईस्वी में मौर्य वंश की नींव को मजबूत किया था। अशोक ने कई वर्षों की लड़ाई के बाद बौद्ध धर्म अपनाया था। इसके बाद उन्होंने युद्ध का बहिष्कार किया और शिकार करने पर पाबंदी लगाई। बौद्ध धर्म का तीसरा अधिवेशन अशोक के राज्यकाल के 17वें साल में संपन्न हुआ।
- सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को धर्मप्रचार के लिए श्रीलंका भेजा। इनके द्वारा श्रीलंका के राजा तिष्य ने बौद्ध धर्म अपनाया और देवानामप्रिय की उपाधि धारण की, वहां ‘महाविहार’ नामक बौद्ध मठ की स्थापना की। यह देश आधुनिक युग में भी थेरवाद बौद्ध धर्म का गढ़ है।
- कनिष्क: कुषाण राजा कनिष्क के विशाल साम्राज्य में विविध धर्मों के अनुयायी विभिन्न लोगों का निवास था। कनिष्क बौद्ध धर्म का अनुयायी था और बौद्ध इतिहास में उसका नाम अशोक के समान ही महत्त्व रखता है। आचार्य अश्वघोष ने उसे बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। इस आचार्य को वह पाटलिपुत्र से अपने साथ लाया था, और इसी से उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी।
- फ़ाह्यान: फ़ाह्यान का जन्म चीन के ‘वु-वंग’ नामक स्थान पर हुआ था। उसने लगभग 399 ई. में अपने कुछ मित्रों ‘हुई-चिंग’, ‘ताओंचेंग’, ‘हुई-मिंग’, ‘हुईवेई’ के साथ भारत यात्रा प्रारम्भ की। फ़ाह्यान की भारत यात्रा का उदेश्य बौद्ध हस्तलिपियों एवं बौद्ध स्मृतियों को खोजना था। फ़ाह्यान बौद्ध धर्म का अनुयायी था, इसीलिए फ़ाह्यान ने उन्ही स्थानों के भ्रमण को महत्त्व दिया, जो बौद्ध धर्म से संबंधित थे।
- ह्वेन त्सांग: भारत में ह्वेन त्सांग ने बुद्ध के जीवन से जुड़े सभी पवित्र स्थलों का भ्रमण किया और उन्होंने अपना अधिकांश समय नालंदा मठ में बिताया, जो बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। यहां उन्होंने संस्कृत, बौद्ध दर्शन एवं भारतीय चिंतन में दक्षता हासिल करने के बाद अपना संपूर्ण जीवन बौद्ध धर्मग्रंथों के अनुवाद में लगा दिया। उसने लगभग 657 ग्रंथों का अनुवाद किया था और 520 पेटियों में उन्हें भारत से चीन ले गया था।। इस विशाल खंड के केवल छोटे से हिस्से (1330 अध्यायों में करीब 73 ग्रंथ) के ही अनुवाद में महायान के कुछ अत्यधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ शामिल हैं।
बुद्ध की शिक्षाएँ
गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद, बौद्ध धर्म के अलग-अलग संप्रदाय उपस्थित हो गये हैं, परंतु इन सब के बहुत से सिद्धांत मिलते हैं।
तथागत बुद्ध ने अपने अनुयायीओं को चार आर्यसत्य, अष्टांगिक मार्ग, दस पारमिता, पंचशील आदी शिक्षाओं को प्रदान किए हैं।
चार आर्य सत्य
चार आर्य सत्य ऐसे बुनियादी तथ्य हैं जो हमारे जीवन की समस्याओं पर विजय पाने के मार्ग की रूपरेखा को प्रस्तुत करते हैं। बुद्ध की यह पहली शिक्षा है जो बाकी सभी बौद्ध शिक्षाओं की संरचना का आधार हैं।
पहला आर्य सत्य: यथार्थ दुख
पहला सत्य यह है कि सामान्य तौर पर जीवन असंतोषजनक है। जन्म से लेकर मृत्यु तक सुख के बहुत से क्षण होते हैं, वे कभी स्थायी नहीं होते, और जीवन में बहुत सी अप्रिय घटनाएं भी होती हैं:
- दुख – बीमारी, निराशा, अकेलापन, चिंता और असंतोष जैसे सभी दुखों को आसानी से पहचाना और समझा जा सकता है। अक्सर इसका सम्बंध हमारे आसपास के माहौल से भी नहीं होता है – हो सकता है कि हम अपने सबसे घनिष्ठ मित्र के साथ हों और अपना पसंदीदा भोजन कर रहे हों, फिर भी हम दुखी हो सकते हैं।
- क्षणिक सुख – हम किसी भी चीज़ का सुख ले रहे हों, यह सुख कभी स्थायी या संतोष प्रदान करने वाला नहीं होता है, और कुछ ही समय में यह सुख दुख में बदल जाता है। जब हमें ठिठुराने वाली सर्दी महसूस हो रही हो तो हम उससे बचने के लिए किसी गर्माहट वाले कमरे में जा सकते हैं, लेकिन वह गर्मी भी कुछ देर के बाद असहनीय हो जाती है, और एक बार फिर हम ताज़ा हवा को तलाश करने लगते हैं। कितना अच्छा होता कि यह सुख सदा के लिए कायम रहता, लेकिन समस्या यह है कि ऐसा कभी होता नहीं है।
- बार-बार उत्पन्न होने वाली समस्याएं – सबसे खराब बात यह है कि जीवन के उतार-चढ़ावों का सामना करने के लिए जिन तरीकों का प्रयोग करते हैं, उनसे और अधिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति के साथ हमारा सम्बंध खराब हो तो जिस प्रकार से हम उस व्यक्ति के साथ बर्ताव करते हैं उससे हमारा सम्बंध और ज़्यादा बिगड़ता है। हम उस सम्बंध को तोड़ लेते हैं, लेकिन चूँकि उस व्यक्ति ने हमारी बुरी आदतों को और बढ़ावा दिया है, इसलिए अगले सम्बंध में भी हम उसी व्यवहार को दोहराते हैं। परिणामतः वह सम्बंध भी बिगड़ जाता है।
दूसरा आर्य सत्य: दुख का यथार्थ कारण
हमारा दुख और क्षणिक सुख अकारण ही उत्पन्न नहीं होते हैं, बल्कि अनेक प्रकार के कारणों और परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं। हमारे आसपास के समाज जैसे बाहरी तत्व हमारे दुख की उत्पत्ति की स्थितियों का निर्माण करते हैं; लेकिन बुद्ध ने हमें सिखाया कि दुख के वास्तविक कारण को हमें अपने चित्त में तलाश करना चाहिए। घृणा, ईर्ष्या, लोभ आदि जैसे हमारे अपने अशांतकारी मनोभाव हमें मन, वचन और कर्म से आवश्यक रूप से आत्मनाशकारी ढंग से व्यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं।
बुद्ध ने इससे भी अधिक गहराई में चिंतन करके इन मनोभावों के पीछे छिपे दुख के वास्तविक कारण, वास्तविकता के बारे में हमारे मिथ्या बोध को उजागर किया। इसका सम्बंध हमारे व्यवहार के दीर्घगामी प्रभावों के बारे में चेतनता का अभाव और भ्रम तथा हमारे अपने, दूसरों के और समस्त सृष्टि के अस्तित्व के बारे में व्यापक गलत धारणा से है। सभी के बीच के अन्तर्सम्बंध को देखने-समझने के बजाए हम यह समझने लगते हैं कि सभी का अस्तित्व स्वतंत्र है और कोई बाहरी तत्व उन्हें एक-दूसरे से नहीं जोड़ते हैं।
तीसरा आर्य सत्य: दुख का यथार्थ रोधन
बुद्ध ने कहा कि हमें इसे सहते रहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यदि हम दुख के कारण को ही नष्ट कर दें, तो उसका परिणाम उत्पन्न नहीं होगा। यदि हम यथार्थ के बारे में अपने भ्रम को समाप्त कर दें तो दुख की फिर कभी नहीं लौटेगा। बुद्ध हमारी किन्हीं एक-दो समस्या की बात नहीं कर रहे थे – उन्होंने कहा कि हम नई समस्याओं की उत्पत्ति को ही पूरी तरह से समाप्त कर सकेंगे।
चौथा आर्य सत्य: चित्त का यथार्थ मार्ग
अपने भोलेपन और अनभिज्ञता से मुक्ति के लिए हमें इनका प्रतिरोध करने वाले भावों के बारे में विचार करना होगा:
- तात्कालिक सुख प्राप्त करने के लिए छलांग लगाने के बजाए लम्बी अवधि के लिए योजना तैयार करें।
- जीवन के किसी एक छोटे से पहलू पर केंद्रित रहने के बजाए उसके व्यापक परिदृश्य को देखें।
- आज सुविधाजनक दिखाई देने वाले काम को करने के बजाए यह विचार करें कि हमारे कृत्यों का हमारे शेष जीवन और आने वाली पीढ़ियों पर क्या प्रभाव होगा।
कभी-कभी जब जीवन की विफलताओं से हमारा सामना होता है तो हमें ऐसा लगता है कि इससे उबरने का एकमात्र हल यही है कि हम अपने आपको शराब के नशे में या गले तक जंक फूड भर कर अपने ध्यान को बंटा दें, और हम उसके दूरगामी परिणामों के बारे में नहीं सोचते हैं। यदि हम इन चीज़ों के आदी हो जाएं तो इसके हमारे स्वास्थ्य पर गम्भीर परिणाम होते हैं जिनके कारण हमारा जीवन तो खतरे में पड़ता ही है, हमारे परिवार के लिए भी दुखद परिणाम हो सकते हैं। इस व्यवहार के पीछे मूल विचार यह होता है कि हमारे आचरण के परिणाम हमसे पूरी तरह अलग हैं। हमारे इस भ्रम का सबसे प्रभावी ढंग से प्रतिरोध इस प्रकार किया जा सकता है:
- हमें इस बात को समझना चाहिए कि समस्त मानवजाति और इस ग्रह से हमारा गहरा सम्बंध है, और यह कि अपने अस्तित्व को लेकर हमारी कल्पनाएं यथार्थ से मेल नहीं खाती हैं।
यदि हम निरंतर ध्यान साधना करके इस प्रकार सोचने का अभ्यास कर लें तो अंततः हम अपने उस भ्रम को दूर कर सकेंगे जो हमारी कोरी कल्पनाओं को बढ़ावा देता है।
हम सभी सुख चाहते हैं लेकिन सुख किसी न किसी कारण से हमारी पहुँच से बाहर बना रहता है। सुख की प्राप्ति के लिए बुद्ध द्वारा सुझाया गया मार्ग – ऊपर बताए गए चार आर्य सत्यों में जिसकी रूपरेखा प्रस्तुत की गई है – सार्वभौमिक है और बुद्ध द्वारा 2,500 वर्ष पूर्व पहली बार सिखाए जाने से लेकर आज तक प्रासंगिक है।
इन चार आर्य सत्यों का उपयोग करते हुए अपनी दिन-प्रतिदिन की समस्याओं के समाधान का लाभ पाने के लिए बौद्ध बनना आवश्यक नहीं है। यह नामुमकिन है कि हर समय सब कुछ हमारी इच्छा के मुताबिक ही होता रहेगा, लेकिन मायूस और निराश और हताश होने की भी कोई वजह नहीं है। वास्तविक सुख को हासिल करने और अपने जीवन को सचमुच सार्थक बनाने के लिए हमें जो कुछ भी चाहिए, वह सब इन चार आर्य सत्यों में उपलब्ध है।
संक्षेप में, हमें दुख के यथार्थ रूप को पहचानना होगा; दुख के यथार्थ कारणों से स्वयं को मुक्त करना होगा; दुख से सही रूप में छुटकारा पाना होगा; और चित्त के यथार्थ मार्ग का पालन करना होगा
तथागत बुद्ध का पहला धर्मोपदेश, जो उन्होने अपने साथ के कुछ साधुओं को दिया था, इन चार आर्य सत्यों के बारे में था। बुद्ध ने चार अार्य सत्य बताये हैं।
अष्टांगिक मार्ग
बौद्ध धर्म के अनुसार, चौथे आर्य सत्य का आर्य अष्टांग मार्ग है दुःख निरोध पाने का रास्ता। गौतम बुद्ध कहते थे कि चार आर्य सत्य की सत्यता का निश्चय करने के लिए इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए :
१. सम्यक दृष्टि : चार आर्य सत्य में विश्वास करना
२. सम्यक संकल्प : मानसिक और नैतिक विकास की प्रतिज्ञा करना
३. सम्यक वाक : हानिकारक बातें और झूट न बोलना
४. सम्यक कर्म : हानिकारक कर्मों को न करना
५. सम्यक जीविका : कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हानिकारक व्यापार न करना
६. सम्यक प्रयास : अपने आप सुधरने की कोशिश करना
७. सम्यक स्मृति : स्पष्ट ज्ञान से देखने की मानसिक योग्यता पाने की कोशिश करना
८. सम्यक समाधि : निर्वाण पाना और स्वयं का गायब होना
कुछ लोग आर्य अष्टांग मार्ग को पथ की तरह समझते है, जिसमें आगे बढ़ने के लिए, पिछले के स्तर को पाना आवश्यक है। और लोगों को लगता है कि इस मार्ग के स्तर सब साथ-साथ पाए जाते है। मार्ग को तीन हिस्सों में वर्गीकृत किया जाता है : प्रज्ञा, शील और समाधि।
पंचशील
भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायीओं को पांच शीलो का पालन करने की शिक्षा दि हैं।
१. अहिंसा
पालि में – पाणातिपाता वेरमनी सीक्खापदम् सम्मादीयामी !
अर्थ – मैं प्राणि-हिंसा से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
२. अस्तेय
पाली में – आदिन्नादाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थ – मैं चोरी से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
३. अपरिग्रह
पाली में – कामेसूमीच्छाचारा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थ – मैं व्यभिचार से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
४. सत्य
पाली नें – मुसावादा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
अर्थ – मैं झूठ बोलने से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
५. सभी नशा से विरत
पाली में – सुरामेरय मज्जपमादठटाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी।
अर्थ – मैं पक्की शराब (सुरा) कच्ची शराब (मेरय), नशीली चीजों (मज्जपमादठटाना) के सेवन से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।
बोधि
गौतम बुद्ध से पाई गई ज्ञानता को बोधि कहलाते है। माना जाता है कि बोधि पाने के बाद ही संसार से छुटकारा पाया जा सकता है। सारी पारमिताओं (पूर्णताओं) की निष्पत्ति, चार आर्य सत्यों की पूरी समझ और कर्म के निरोध से ही बोधि पाई जा सकती है। इस समय, लोभ, दोष, मोह, अविद्या, तृष्णा और आत्मां में विश्वास सब गायब हो जाते है। बोधि के तीन स्तर होते है ः श्रावकबोधि, प्रत्येकबोधि और सम्यकसंबोधि। सम्यकसंबोधि बौध धर्म की सबसे उन्नत आदर्श मानी जाती है।
दर्शन एवं सिद्धान्त
तीर्थ यात्रा बौद्ध धार्मिक स्थल |
चार मुख्य स्थल |
लुम्बिनी · बोध गया सारनाथ · कुशीनगर |
चार अन्य स्थल |
श्रावस्ती · राजगीर सनकिस्सा · वैशाली |
अन्य स्थल |
पटना · गया कौशाम्बी · मथुरा कपिलवस्तु · देवदहा केसरिया · पावा नालंदा · वाराणसी |
बाद के स्थल |
साँची · रत्नागिरी एल्लोरा · अजंता भरहुत |
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प्रमुख तीर्थ
भगवान बुद्ध के अनुयायीओं के लिए विश्व भर में पांच मुख्य तीर्थ मुख्य माने जाते हैं :
- (1) लुम्बिनी– जहां भगवान बुद्ध का जन्म हुआ।
- (2) बोधगया– जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त हुआ।
- (3) सारनाथ– जहां से बुद्ध ने दिव्यज्ञान देना प्रारंभ किया।
- (4) कुशीनगर– जहां बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ।
- (5) दीक्षाभूमि, नागपुर– जहां भारत में बौद्ध धर्म का पुनरूत्थान हुआ।
लुम्बिनी
माया देवी मंदिर, लुंबिनी, नेपाल
यह स्थान नेपाल की तराई में नौतनवां रेलवे स्टेशन से 25 किलोमीटर और गोरखपुर-गोंडा लाइन के नौगढ़ स्टेशन से करीब 12 किलोमीटर दूर है। अब तो नौगढ़ से लुम्बिनी तक पक्की सडक़ भी बन गई है। ईसा पूर्व 563 में राजकुमार सिद्धार्थ गौतम (बुद्ध) का जन्म यहीं हुआ था। हालांकि, यहां के बुद्ध के समय के अधिकतर प्राचीन विहार नष्ट हो चुके हैं। केवल सम्राट अशोक का एक स्तंभ अवशेष के रूप में इस बात की गवाही देता है कि भगवान बुद्ध का जन्म यहां हुआ था। इस स्तंभ के अलावा एक समाधि स्तूप में बुद्ध की एक मूर्ति है। नेपाल सरकार ने भी यहां पर दो स्तूप और बनवाए हैं।
बोधगया
महाबोधि विहार, बोधगया, बिहार, भारत
करीब छह साल तक जगह-जगह और विभिन्न गुरुओं के पास भटकने के बाद भी बुद्ध को कहीं परम ज्ञान न मिला। इसके बाद वे गया पहुंचे। आखिर में उन्होंने प्रण लिया कि जब तक असली ज्ञान उपलब्ध नहीं होता, वह पिपल वृक्ष के नीचे से नहीं उठेंगे, चाहे उनके प्राण ही क्यों न निकल जाएं। इसके बाद करीब छह दिन तक दिन रात एक पिपल वृक्ष के नीचे भूखे-प्यासे तप किया। आखिर में उन्हें परम ज्ञान या बुद्धत्वउपलब्ध हुआ। सिद्धार्थ गौतम अब बुद्धत्व पाकर आकाश जैसे अनंत ज्ञानी हो चूके थे। जिस पिपल वृक्ष के नीचे वह बैठे, उसे बोधि वृक्ष यानी ज्ञान का वृक्ष कहां जाता है। वहीं गया को तक बोधगया (बुद्ध गया) के नाम से जाना जाता है।
सारनाथ[
धामेक स्तूप के पास प्राचीण बौद्ध मठ, सारनाथ, उत्तर प्रदेश, भारत
बनारस छावनी स्टेशन से छह किलोमीटर, बनारस-सिटी स्टेशन से साढ़े तीन किलोमीटर और सडक़ मार्ग से सारनाथ चार किलोमीटर दूर पड़ता है। यह पूर्वोत्तर रेलवे का स्टेशन है और बनारस से यहां जाने के लिए सवारी तांगा और रिक्शा आदि मिलते हैं। सारनाथ में बौद्ध-धर्मशाला है। यह बौद्ध तीर्थ है। लाखों की संख्या में बौद्ध अनुयायी और बौद्ध धर्म में रुचि रखने वाले लोग हर साल यहां पहुंचते हैं। बौद्ध अनुयायीओं के यहां हर साल आने का सबसे बड़ा कारण यह है कि भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था। सदियों पहले इसी स्थान से उन्होंने धर्म-चक्र-प्रवर्तन प्रारंभ किया था। बौद्ध अनुयायी सारनाथ के मिट्टी, पत्थर एवं कंकरों को भी पवित्र मानते हैं। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुओं में अशोक का चतुर्मुख सिंह स्तंभ, भगवान बुद्ध का प्राचीन मंदिर, धामेक स्तूप, चौखंडी स्तूप, आदि शामिल हैं।
कुशीनगर
महापरिनिर्वाण स्तूप, कुशीनगर, उत्तर प्रदेश, भारत
कुशीनगर बौद्ध अनुयायीओं का बहुत बड़ा पवित्र तीर्थ स्थल है। भगवान बुद्ध कुशीनगर में ही महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए। कुशीनगर के समीप हिरन्यवती नदी के समीप बुद्ध ने अपनी आखरी सांस ली। रंभर स्तूप के निकट उनका अंतिम संस्कार किया गया। उत्तर प्रदेश के जिला गोरखपुर से 55 किलोमीटर दूर कुशीनगर बौद्ध अनुयायीओं के अलावा पर्यटन प्रेमियों के लिए भी खास आकर्षण का केंद्र है। 80 वर्ष की आयु में शरीर त्याग से पहले भारी संख्या में लोग बुद्ध से मिलने पहुंचे। माना जाता है कि 120 वर्षीय ब्राह्मण सुभद्र ने बुद्ध के वचनों से प्रभावित होकर संघ से जुडऩे की इच्छा जताई। माना जाता है कि सुभद्र आखरी भिक्षु थे जिन्हें बुद्ध ने दीक्षित किया।
दीक्षाभूमी
दीक्षाभूमि, नागपुर, महाराष्ट्र, भारत
दीक्षाभूमि, नागपुर महाराष्ट्र राज्य के नागपुर शहर में स्थित पवित्र एवं महत्त्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ स्थल है। बौद्ध धर्म भारत में 12वी शताब्धी तक रहा, बाद हिंदूओं और मुस्लिमों के हिंसक संघर्ष से शांतिवादी बौद्ध धर्म का प्रभाव कम होता गया और 12वी शताब्दी में जैसे बौद्ध धर्म भारत से गायब हो गया। 12वी से 20वी शताब्धी तक हिमालयीन प्रदेशों के अलावा पुरे भारत में बौद्ध धर्म के अनुयायीओं की संख्या बहूत ही कम रही। लेकिन, दलितों के मसिहा डॉ॰ बाबासाहेब अम्बेडकर ने 20वी शताब्दी के मध्य में अशोक विजयादशमी के दिन 14 अक्टूबर, 1956 को पहले स्वयं अपनी पत्नी ड॰ सविता आंबेडकर के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और फिर अपने 5,00,000 हिंदू दलित समर्थकों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी। बौद्ध धर्म की दीक्षा देने के लिए बाबासाहेब ने त्रिशरण, पंचशील एवं अपनी 22 प्रतिज्ञाँए अपने नव-बौद्धों को दी। अगले दिन नागपुर में 15 अक्टूबर को फिर बाबासाहेब ने 3,00,000 लोगों को धम्म दीक्षा देकर बौद्ध बनाया, तीसरे दिन 16 अक्टूबर को बाबासाहेब दीक्षा देने हेतू चंद्रपुर गये, वहां भी उन्होंने 3,00,000 लोगों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इस तरह सिर्फ तीन दिन में डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर ने 10,00,000 से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म की दिक्षा देकर विश्व के बौद्धों को जनसंख्या 10 लाख बढा दी। यह विश्व का सबसे बडा धार्मिक रूपांतरण या धर्मांतरण माना जाता है। बौद्ध विद्वान, बोधिसत्व डॉ॰ बाबासाहेब अम्बेडकर ने भारत में बौद्ध धर्म का पुनरूत्थान किया। एक सर्वेक्षण के अनुसार मार्च 1959 तक लगभग 1.5 से 2 करोड़ दलितों ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। 1956 से आज तक हर साल यहाँ देश और विदशों से 20 से 25 लाख बुद्ध और बाबासाहेब के बौद्ध अनुयायी दर्शन करने के लिए आते है। इस प्रवित्र एवं महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल को महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘अ’वर्ग पर्यटन एवं तीर्थ स्थल का दर्जा दिया गया है.i
बौद्ध समुदाय
संपूर्ण विश्व में लगभग 1.8 अरब (180 करोड़) बौद्ध हैं। इनमें से लगभग 70% से 75% महायानी बौद्ध और शेष 25% से 30% थेरावादी, नवयानी (भारतीय) और वज्रयानी बौद्ध है। महायान और थेरवाद (हीनयान), नवयान, वज्रयान के अतिरिक्त बौद्ध धर्म में इनके अन्य कई उपसंप्रदाय या उपवर्ग भी हैं परन्तु इन का प्रभाव बहुत कम है। सबसे अधिक बौद्ध पूर्वी एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के सभी देशों बहूसंख्यक के रूप में रहते हैं। दक्षिण एशिया के दो या तीन देशों में भी बौद्ध धर्म बहुसंख्यक है। एशिया महाद्वीप की लगभग आधी से ज्यादा आबादी पर बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ़्रीका और यूरोप जैसे महाद्वीपों में भी करोडों बौद्ध रहते हैं। विश्व में लगभग 18 से अधिक देश ऐसे हैं जहां बौद्ध बहुसंख्यक या बहुमत में हैं। विश्व में कई देश ऐसे भी हैं जहां की बौद्ध जनसंख्या के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध नहीं है।
अधिकतम बौद्ध जनसंख्या वाले देश | ||
देश | बौद्ध जनसंख्या | बौद्ध प्रतिशत |
चीनी जनवादी गणराज्य | 1,22,50,87,000 | 91% |
जापान | 12,33,45,000 | 96% |
वियतनाम | 7,45,78,000 | 85% |
भारत | 6,79,87,899 | 06% |
थाईलैण्ड | 6,46,87,000 | 95% |
म्यान्मार | 4,99,92,000 | 90% |
दक्षिण कोरिया | 2,46,56,000 | 54% |
ताइवान | 2,21,45,000 | 93% |
उत्तर कोरिया | 1,76,56,000 | 72% |
श्रीलंका | 1,60,45,600 | 75% |
कम्बोडिया | 1,48,80,000 | 97% |
इंडोनेशिया | 80,75,400 | 03% |
हॉन्ग कॉन्ग | 65,87,703 | 93% |
मलेशिया | 63,47,220 | 22% |
नेपाल | 62,28,690 | 22% |
लाओस | 62,87,610 | 98% |
संयुक्त राज्य | 61,49,900 | 02% |
सिंगापुर | 37,75,666 | 67% |
मंगोलिया | 30,55,690 | 98% |
फ़िलीपीन्स | 28,55,700 | 03% |
रूस | 20,96,608 | 02% |
बांग्लादेश | 20,46,800 | 01% |
कनाडा | 21,47,600 | 03% |
ब्राज़ील | 11,45,680 | 01% |
फ़्रान्स | 10,55,600 | 02% |
बौद्ध देशों या क्षेत्रों की सूची
दुनिया के बौद्ध देश या झेत्र और उनमें बौद्ध प्रतिशत
देश जिनमें अधिकतम बौद्ध रहते हैं[5] | बौद्ध प्रतिशत |
लाओस | 98 % |
मंगोलिया | 98 % |
कम्बोडिया | 97 % |
जापान | 96 % |
थाईलैण्ड | 95 % |
भूटान | 94 % |
साँचा:देश आँकड़े ताइवान(चीन) | 93 % |
साँचा:देश आँकड़े हांगकांग(चीन) | 93 % |
चीनी जनवादी गणराज्य | 91 % |
म्यान्मार (बर्मा) | 90 % |
साँचा:देश आँकड़े मकाउ(चीन) | 90 % |
साँचा:देश आँकड़े तिब्बत(चीन) | 90 % |
वियतनाम | 85 % |
श्रीलंका | 75 % |
क्रिसमस द्वीप | 75 % |
उत्तर कोरिया | 73 % |
सिंगापुर | 67 % |
तूवा (रूस के गणतंत्र) | 65 % |
दक्षिण कोरिया | 54 % |
कालमिकिया (रूस के गणतंत्र) | 40 % |
मलेशिया | 22 % |
नेपाल | 21 % |
बुर्यातिया (रूस के गणतंत्र) | 20 % |
ब्रुनेई | 17 % |
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